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8 अग॰ 2021

संवैधानिक उपचारों का अधिकार -


संवैधानिक उपचारों का अधिकार - 

संवैधानिक उपचारों का अधिकार सबसे महत्वपूर्ण मौलिक अधिकार है। अनुच्छेद 32 में संवैधानिक उपचारों के अधिकार के बारे में बताया गया है।  यह अधिकार अन्य मौलिक अधिकारों की रक्षा करता है इसलिए इस अधिकार को मौलिक अधिकारों की आत्मा या हृदय भी कहा जाता है। डॉ भीमराव अंबेडकर ने संवैधानिक उपचारों के अधिकार को संविधान की आत्मा भी कहा है। 

भारतीय संविधान के भाग 3 में भारतीय नागरिकों को प्रदान किए गए मौलिक अधिकारों का वर्णन किया गया है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकारों का विस्तृत और व्यापक उल्लेख किया गया है जो अन्य संघात्मक संविधानों  में नहीं मिलता है। मौलिक अधिकारों को सामान्य परिस्थितियों में भारतीय सरकार द्वारा सीमित नहीं किया जा सकता है क्योंकि मौलिक अधिकारों की सुरक्षा का प्रहरी सर्वोच्च न्यायालय है।

 भारत के मूल संविधान में नागरिकों को 7 मौलिक अधिकार प्रदान किए गए थे परंतु वर्तमान में छः ही मौलिक अधिकार है। संपत्ति के अधिकार को भारतीय संविधान के 44 वें संविधान संशोधन विधेयक (1978) द्वारा हटा दिया गया था। आपातकालीन परिस्थितियों में मौलिक अधिकारों को निलंबित भी किया जा सकता है। 

संवैधानिक उपचारों का अधिकार Article 32
संवैधानिक उपचारों का अधिकार

इस लेख में संविधान का ह्रदय और आत्मा की संज्ञा दी जाने वाले अधिकार संवैधानिक उपचारों का अधिकार के बारे में जानकारी दिए जाने का प्रयास किया गया है। Article 32 में संविधानिक उपचारों के अधिकार के अंतर्गत कुल पांच प्रकार के प्रावधान किए गए हैं।

1.  बंदी प्रत्यक्षीकरण लेख

2. परमादेश

3. निषेधाज्ञा / प्रतिषेध 

4. अधिकार पृच्छा

5. उत्प्रेषण रिट

संवैधानिक उपचारों के अधिकार के अंतर्गत किए गए प्रावधानों की संक्षिप्त जानकारी इस प्रकार है -

👉 बंदी प्रत्यक्षीकरण -

 इस प्रावधान के द्वारा किसी भी गिरफ्तार किए गए व्यक्ति को न्यायालय के सामने प्रस्तुत किए जाने का आदेश दिया जाता है। गिरफ्तारी का कारण संतोषजनक नहीं होने पर न्यायालय व्यक्ति को छोड़ने का आदेश जारी कर सकता है। अवैध गिरफ्तारी को रोकना इसका प्रमुख उद्देश्य है। 

बंदी प्रत्यक्षीकरण का सामान्य अर्थ है - शरीर को हमारे सामने पेश करना।

 👉 परमादेश -

             परमादेश से तात्पर्य है हम आज्ञा/आदेश देते हैं। जब न्यायालय को ऐसा लगे कि कोई संस्था या पदाधिकारी अपने कर्तव्यों का सही पालन नहीं कर रहा है तो ऐसी परिस्थितियों में परमादेश जारी किया जाता है। इस आदेश के द्वारा किसी व्यक्ति के प्रभावित होने वाले मौलिक अधिकारों की रक्षा की जाती है ।


👉 निषेधाज्ञा /प्रतिषेध


निषेधाज्ञा से तात्पर्य है मना करना। जब किसी निचली अदालत द्वारा अपने अधिकार क्षेत्र से बाहर जाकर किसी मुकदमे की सुनवाई का कार्य किया जा रहा हो  तब उच्च न्यायालय या ऊपरी अदालतें उसे ऐसा करने से रोकने के लिए यह लेख जारी करती हैं। किसी निजी व्यक्ति या निजी संस्था के खिलाफ प्रतिषेध का प्रयोग नहीं होता है। अधीनस्थ न्यायालयों को निरंकुश होने से रोकने के लिए ही ऐसा किया जाता है। 

👉  उत्प्रेषण रिट -

अधीनस्थ न्यायालय द्वारा यदि किसी मुकदमे की सुनवाई से उनकी शक्ति सीमा का अतिक्रमण हो रहा हो अर्थात् सुनवाई ठीक तरीके से नहीं की जा रही हो तो उच्चतम न्यायालय वह मुकदमा संपूर्ण सूचना के साथ अपने पास मंगा लेता है। उत्प्रेषण से तातपर्य है - और जानकारी दीजिए। 

👉  अधिकार पृच्छा -


अधिकार पृच्छा से तात्पर्य है आपका क्या अधिकार/ हक है ?  न्यायालय किसी लोक पदाधिकारी के उस पद पर बने रहने से संबंधित वैधता की जांच करने के लिए कह सकता है। यदि जांच में पदाधिकारी के बने रहने से संबंधित तथ्य वैध पाए जाते हैं तो उसे पद पर रहने दिया जाता है। लेकिन यदि कानूनी उल्लंघन पाया जाता है तो उसे पद से हटा दिया जाता है।


आशा है संवैधानिक उपचारों का अधिकार से सम्बंधित जानकारी आपको अच्छी लगी है।  यह जानकारी अपने साथियों के साथ अवश्य शेयर करें। 

1 टिप्पणी:

Unknown ने कहा…

Very good information. I liked it.