हल्दीघाटी का युद्ध और महाराणा प्रताप - (Haldighati ka youdh and maharana pratap)
राणा महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी का शेर कहा जाता है। हल्दीघाटी का युद्ध और महाराणा प्रताप Haldighati Ka Yudh OR Maharana Pratap के बारे में जानकारी प्रतियोगी परीक्षाओं को ध्यान में रखकर दी जा रही है। मेवाड़ में सीसोदिया राजवंश का शासन था। कहा जाता है की उस समय लोग सुबह देवी - देवताओं को नहीं महाराणा प्रताप को याद करते थे।
हल्दीघाटी का युद्ध और महाराणा प्रताप |
महाराणा प्रताप की पारिवारिक जानकारी | Maharana Pratap Family History
महाराणा प्रताप का जन्म विक्रम संवत 1597 में हुआ था। दूसरी पंचांग के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म 9 मई 1540 ई. को हुआ था। विक्रम संवत और ई. में 57 साल का अंतर होता है विक्रम संवत 57 साल आगे चलता है। रविवार के दिन प्रताप का जन्म मेवाड़ में कुंभलगढ़ दुर्ग के एक भाग में कटारगढ़ स्थित है उसी कटारगढ़ के बादल महल में महाराणा प्रताप का जन्म हुआ था।
महाराणा प्रताप की माता का नाम जयवंत कंवर इसे जयवंता बाई भी कहा जाता है ( जयवंता बाई पाली नरेश अखेराज सोनगरा चौहान की पुत्री थी) । प्रताप महाराणा उदयसिंह का जेष्ठ पुत्र था। मेवाड़ में सिसोदिया राजपूत वंश का शासन था। उदयपुर उस समय मेवाड़ की राजधानी था । महाराणा प्रताप सिसोदिया राजवंश से सम्बंधित हैं । लेखक कर्नल जेम्स टॉड के अनुसार महाराणा प्रताप का जन्म मेवाड़ के कुंभलगढ़ में हुआ था।
इतिहासकार विजय नाहर के अनुसार महाराणा प्रताप की जन्म कुंडली और काल गणना के अनुसार इनका जन्म ननिहाल पाली के राजमहलों में हुआ। महाराणा प्रताप का बचपन कुंभलगढ़ दुर्ग में ही व्यतीत हुआ। महाराणा प्रताप का बचपन भील समुदाय के साथ व्यतीत हुआ। भीलों के बच्चों के साथ ही वे युद्ध कला सीखते थे। भील परिवार के लोग अपने बच्चों को कीका कहकर पुकारते थे।
इसलिए भीलों के बीच में बचपन में महाराणा प्रताप को भी कीका नाम से जाना जाता है। महाराणा प्रताप का विवाह 1557 ई. में अजबदे पंवार के साथ हुआ। इनके गर्भ से 16 मार्च 1559 ई. में अमरसिंह का जन्म हुआ। महाराणा प्रताप ने अपने जीवन में कुल 11 शादियां की थी।
महाराणा प्रताप जब 32 वर्ष की उम्र के थे तब उनके पिता उदयसिंह की होली के दिन 28 फरवरी 1572 ई. को गोगुंदा में मृत्यु हो गई थी। पिता के दाह संस्कार के बाद गोगुंदा में स्थित महादेव बावड़ी पर मेवाड़ के सामंतो और प्रजा ने प्रताप सिंह का महाराणा के रूप में राजतिलक किया।
साथ ही महाराणा उदय सिंह द्वारा नामित उत्तराधिकारी जगमाल को मेवाड़ के वरिष्ठ सामंतों ने अपदस्थ कर दिया था। महाराणा प्रताप को हल्दीघाटी और मेवाड़ का शेर भी कहा जाता है।
महाराणा प्रताप की प्रतिज्ञा -
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राजस्थान के प्रमुख दुर्ग-
अकबर का नागौर दरबार -
1570 ईस्वी में अकबर का नागौर में दरबार लगा इसमें मेवाड़ के अलावा अधिकतर राजपूतों ने अकबर की अधीनता स्वीकार कर ली थी। अकबर ने महाराणा प्रताप को भी अधीनता स्वीकार करवाने के लिए चार दल भेजें जो इस प्रकार हैं -
सूत्र - JMBT - Jalalkhan --Mansingh - Bhagwandas --Todarmal
पहली बार नवंबर 1572 ईस्वी में प्रताप के पास जलाल खां कोरची को भेजा गया ।
दूसरी बार जून 1573 इसी में आमिर का शासक मानसिंह को प्रताप को समझाने भेजा गया था।
तीसरी बार अक्टूबर 1573 में आमेर के भगवंतदास को भेजा गया।
चौथी बार दिसंबर 1573 ई. में टोडरमल को भेजा गया। अकबर के इन चारों शिष्टमंडल प्रताप को समझाने में सफल रहे तो अकबर ने प्रताप को युद्ध में बंदी बनाने की योजना बनाई। यह योजना अजमेर के किले में बनाई गई जिसमें आज संग्रहालय भी स्थित है। अजमेर के इस किले को अकबर का मैगजीन या अकबर का दौलतखाना भी कहते हैं।
तीसरी बार अक्टूबर 1573 में आमेर के भगवंतदास को भेजा गया।
चौथी बार दिसंबर 1573 ई. में टोडरमल को भेजा गया। अकबर के इन चारों शिष्टमंडल प्रताप को समझाने में सफल रहे तो अकबर ने प्रताप को युद्ध में बंदी बनाने की योजना बनाई। यह योजना अजमेर के किले में बनाई गई जिसमें आज संग्रहालय भी स्थित है। अजमेर के इस किले को अकबर का मैगजीन या अकबर का दौलतखाना भी कहते हैं।
हल्दीघाटी का युद्ध और महाराणा प्रताप | Haldi ghati ka yudh or Maharana Pratap
अकबर ने मानसिंह को इस युद्ध का मुख्य सेनापति बनाया तथा आसफ खां को सहयोगी के रूप में नियुक्त किया गया । यह युद्ध इतिहास में हल्दीघाटी युद्ध के नाम से प्रसिद्ध हुआ। हल्दीघाटी का युद्ध 18 जून 1576 ई. में महाराणा प्रताप और अकबर के सेनापति मानसिंह के मध्य हुआ।
हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के दो हाथी रामप्रसाद व लूणा प्रमुख थे। महाराणा प्रताप के लूणा और रामप्रसाद हाथी तथा मुगलों की ओर से गजमुक्ता व गजराज हाथी के मध्य हुआ। महाराणा प्रताप के रामप्रसाद हाथी के महावत के मारे जाने के कारण यह हाथी मुगलों के हाथ लग गया और अकबर ने इस हाथी का नाम पीरप्रसाद कर दिया था।
हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप के बहादुर सेनापति हकीम खां सूरी थे। हल्दीघाटी के युद्ध में एकमात्र मुस्लिम सेनापति महाराणा प्रताप की ओर से हकीम खां सूरी ही थे। भील सेना की सरदार राणा पूंजा भील थे।
इस युद्ध में बड़ी सादड़ी के झाला मन्ना ने चेतक के घायल होने पर महाराणा प्रताप को युद्ध के मैदान से चले जाने के लिए कहा। और स्वयं झाला मन्ना ने राजचिह्न धारण करके महाराणा प्रताप के स्थान पर युद्ध में लड़ते हुए वीरगति को प्राप्त हुआ।
मेवाड़ के वीर महाराणा प्रताप के लिए भामाशाह ( pali ) ने सबसे बड़ा योगदान दिया था। भामाशाह बाल्यकाल से ही मेवाड़ के राजा महाराणा के मित्र और विश्वासपात्र सलाहकार थे। उन्होंने प्रताप के सैनिकों के लिए लगभग 12 साल तक गुजारा करने लायक अनुदान दिया था।
हल्दीघाटी के युद्ध में महाराणा प्रताप का स्वामी भक्त घोड़ा चेतक बलीचा गांव में स्थित एक नाले को पार करते समय परलोक सिधार गया था। हल्दीघाटी के निकट बलीचा गांव में चेतक की छतरी बनी हुई है।
इस युद्ध का आंखों देखा वर्णन अब्दुल कादिर बदायूँनी ने किया है। कर्नल जेम्स टॉड ने हल्दीघाटी युद्ध को मेवाड़ की थर्मोपोली और दिवेर युद्ध को मेवाड़ का मैराथन कहा है। बदायूँनी ने हल्दीघाटी के युद्ध को खमनोर का युद्ध कहा है। अबुल फजल ने इसे गोगुंदा का युद्ध का नाम दिया है। कुछ इतिहासकारों ने इसे अनिर्णायक युद्ध की संज्ञा दी है।
फरवरी 1577 ई. में स्वयं अकबर ने और अक्टूबर 1577 ई. से लेकर नवंबर 1579 ई. तक शाहबाज खान ने लगातार तीन बार मेवाड़ पर आक्रमण किया। 1580 ईस्वी में अकबर ने अब्दुल रहीम खानखाना को प्रताप के विरुद्ध युद्ध करने भेजा था।
महाराणा प्रताप युद्ध की नई पद्धति छापामार युद्ध प्रणाली में पारंगत थे। अक्टूबर 1582 ईसवी में महाराणा प्रताप और मुगल किलेदार सुल्तान खां के मध्य
दिवेर का युद्ध हुआ था। इस युद्ध के असली नायक राणा प्रताप का पुत्र अमर
सिंह थे। सुल्तान खां अकबर के चाचा थे।
मुगल सम्राट अकबर ने 5 दिसंबर 1584 ई. को आमेर के राजा भारमल के छोटे पुत्र जगन्नाथ कछवाहा को प्रताप के विरुद्ध युद्ध करने के लिए भेजा था। लेकिन फिर भी अकबर को सफलता प्राप्त नहीं हुई।
1585 ईस्वी में महाराणा प्रताप ने आपातकालीन समय में चावंड को अपनी राजधानी बनाया था। 19 जनवरी 1597 ई. में धनुष की प्रत्यंचा के आघात से प्रताप की चावंड में मृत्यु हो गई। चावंड के समीप बांडोली गांव के निकट केजड़ बांध के किनारे महाराणा प्रताप की 8 खंभों की छतरी बनी हुई है जो आज भी मेवाड़ के शेर महाराणा प्रताप की याद दिलाती है।
महाराणा प्रताप और खास जानकारी -
9 मई को महाराणा प्रताप की जयंती मनाई जाती है। अकेले महाराणा प्रताप ऐसे राजपूत राजा थे जिन्होंने मुगल बादशाह अकबर की अधीनता स्वीकार नहीं की थी। चेतक महाराणा प्रताप का प्रिय घोडा था।
चेतक का रंग नीला होने के कारण प्रताप के लिए ''नील घोड़े पर असवार म्हारा मेवाड़ी सरदार कविता भी लिखी गयी है। '' महाराण प्रताप के भाले का वजन 81 किलो और कवच का वजन 72 किलो बताया गया है।
चेतक से प्रताप पुत्रवत प्रेम करते थे। हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक को हाथी की नकली सूंड भी लगाई थी। युद्ध में जख्मी होने के बाद भी चेतक 26 फिट के नाले को पार कर गया था।
महाराणा प्रताप के पास रामप्रसाद नाम का और लूना नामक हाथी भी थे। लेकिन रामप्रसाद हाथी प्रताप को बहुत प्रिय था।अकबर ने प्रताप के साथ इसी रामप्रसाद हाथी को बंदी बनाने की मांग की थी। हल्दीघाटी के युद्ध में रामप्रसाद हाथी ने अकबर के 13 हाथियों को मार गिराया था।
रामप्रसाद हाथी भी स्वामी भक्ति के लिए प्रसिद्ध था। क्योंकि युद्ध में अकबर के द्वारा छीन लेने के बाद अकबर ने इसका नाम पीरप्रसाद रख लिया था। लेकिन अकबर के अधीन हो जाने के बाद इस हाथी ने अपनी गर्दन प्रताप की तरह नीचे भी नहीं झुकाई और न ही वहां दाना - पानी आदि ग्रहण किया।
आशा है हल्दीघाटी का युद्ध और महाराणा प्रताप के बारे में जानकारी आपको बहुत अच्छी लगी है। अपने साथियों के साथ शेयर करना न भूलें।
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चेतक का रंग नीला होने के कारण प्रताप के लिए ''नील घोड़े पर असवार म्हारा मेवाड़ी सरदार कविता भी लिखी गयी है। '' महाराण प्रताप के भाले का वजन 81 किलो और कवच का वजन 72 किलो बताया गया है।
चेतक से प्रताप पुत्रवत प्रेम करते थे। हल्दीघाटी के युद्ध में चेतक को हाथी की नकली सूंड भी लगाई थी। युद्ध में जख्मी होने के बाद भी चेतक 26 फिट के नाले को पार कर गया था।
महाराणा प्रताप के पास रामप्रसाद नाम का और लूना नामक हाथी भी थे। लेकिन रामप्रसाद हाथी प्रताप को बहुत प्रिय था।अकबर ने प्रताप के साथ इसी रामप्रसाद हाथी को बंदी बनाने की मांग की थी। हल्दीघाटी के युद्ध में रामप्रसाद हाथी ने अकबर के 13 हाथियों को मार गिराया था।
रामप्रसाद हाथी भी स्वामी भक्ति के लिए प्रसिद्ध था। क्योंकि युद्ध में अकबर के द्वारा छीन लेने के बाद अकबर ने इसका नाम पीरप्रसाद रख लिया था। लेकिन अकबर के अधीन हो जाने के बाद इस हाथी ने अपनी गर्दन प्रताप की तरह नीचे भी नहीं झुकाई और न ही वहां दाना - पानी आदि ग्रहण किया।
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